Sunday, October 20, 2013

पागल मन

जज़्बातों के ज़ुल्म के तले मैं दबा चला जा रहा था
खोखले से वादों की लहरों में मैं बहा चला जा रहा था
संग अपने यादों मे मैं आशियानों का मंज़र लिए जा रहा था ,
क्या पता था मुझे ,मैं तो बस काग़ज़ के बने इमारतों को आशियाना समझा जा रहा था
बातों के भंवर मे उनके मैं फिसलता चला जा रहा था ,
यह ज्ञांत ना था मुझे की मैं समंदर की गहराईओं मे और डूबता चला जा रहा था

पेड़ों के कुछ टहनिओन को मैने बगीचा समझ लिया था ,
धुले हुए कोयले को मैने सोना समझ लिया था ....
दीवारें लाँघ कर मिलने को मैने इकरार समझ लिया था और
आँखों से आँखें मिला कर बात करने को मैने प्यार समझ लिया था ...

नींद खुली, होश आया तो ध्यान आया की इस पागल मन ने तो खुद तो परवाना समझ लिया था....

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