ज़िंदगी अपनी वसूलों पे जीता चला जा रहा था,
मैं अपनी ही धुन मे चलता चला जा रहा था
मैं अपनी ही धुन मे चलता चला जा रहा था
मंज़िलें बहुत थी पाने को , मैं बस कदम बढ़ाए जा रहा था !
जीने की चाहत को अपने अरमानों से सीचता जा रहा था , अपनी ही उम्मीदों को बढ़ाता जा रहा था....
जीने की चाहत को अपने अरमानों से सीचता जा रहा था , अपनी ही उम्मीदों को बढ़ाता जा रहा था....
क्या पता था मुझे की एक दिन मंज़िल खुद मुझसे टकरा जाएगी ,
मैं तो बस अपनी हसरतों को पूरा किए जा रहा था .....
मैं तो बस अपनी हसरतों को पूरा किए जा रहा था .....
सरहदें काफ़ी थी सामने मेरे , पार उनको कर मैं बढ़ा जा रहा था
मुश्किलें आई बहुत राहों मे , बच कर मैं निकला जा रहा था
अजनबी बन चुके थे दोस्त मेरे, गले से उनको लगाए जा रहा था
मंज़िल की इस तलाश मे, मैं तो बस अपनी हसरतों को पूरा किए जा रहा था .....